एक दृष्टि में कृति परिचय : कृतिनाम– महादेवीसूत्र की दीपिका टीका। अर्थात् महादेवीसूत्र ज्योतिष ग्रन्थ की संस्कृतभाषामय दीपिका टीका। टीकाकार का नाम–वाचक धनराज। ये अंचलगच्छीय आचार्य श्रीभाववर्द्धनसूरि के प्रशिष्य एवं वाचक भुवनराज के शिष्य थे। टीका की भाषा–संस्कृत, कृति प्रकार–गद्य। विषय–ज्योतिष, ग्रंथाग्र–१५००, रचना संवत्– वि.सं.-१६९२, रचना स्थल–पद्मावतीपत्तन। संलग्न कुल हस्तप्रतों की संख्या–१४ है। इसमें ७ प्रतें सम्पूर्ण एवं ७ प्रतें अपूर्ण हैं। वर्त्तमान में उपलब्ध सूचना के अनुसार यह जानकारी दी गई है। सूचीकरण कार्यगत प्रत संपादनादि कार्यों में शुद्धि–वृद्धिपूर्वक प्रत सम्बन्धी सूचनाओं में परिवर्तन सम्भव है। कृति की मूल सूचनाएँ यथावत् रहेंगी।
प्रत परिचय– उपर्युक्त कुल १४ प्रतों का यहाँ परिचय देना सम्भव नहीं है। दो-चार प्रतें होती हैं तो वाचकों को प्रत की जानकारी के लिये अवश्य ही परिचय दे देते हैं। सम्पादन-संशोधन कार्य में पाठान्तर, पाठवृद्धि, शुद्धाशुद्ध पाठादि जानने हेतु ये सभी प्रतें उपयोगी सिद्ध होंगी। इसी हेतु से उपलब्ध कुल प्रतों की जानकारी दी गई हैं। ये सभी वि.सं. १८वीं से २०वीं के मध्य में लिखी गई प्रतें हैं। इसमें प्रत संख्या १२२७६३ का लेखन संवत् १७१९, १५२२३७ का ले. सं.१७२२, ९४१५८ का ले. सं. १७६२ एवं २६०४ का ले. सं. १७९७ है। अपेक्षाकृत बाकी प्रतों से ये प्रतें पुरानी हैं। ज्योतिष विषयानुरागी संशोधन-सम्पादन पिपासु शोधच्छात्र, अध्यापकादि विद्वद्वृंद आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर-कोबा में आवेदन देकर अपेक्षित छायाप्रतियाँ प्राप्त कर सकते हैं, इस विषय में अन्य कोई जानकारी भी प्राप्त करना चाहे तो फोन, ईमेल, व्हाट्स-अप, पत्र आदि माध्यमों से पृच्छा कर सकते हैं।
विद्वान व कृति परिचय– प्रस्तुत कृति महादेवसूत्र, महादेवीसूत्र व महादेवी सारणी के नाम से प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रंथ की टीका है। मूल कृति की भाषा संस्कृत है तथा ४३ श्लोकों में कृति रची गई है। जैन साहित्य का बृहद् इतिहास के अनुसार यह कृति ग्रहसाधन विषयक है। इसका रचना संवत् १२३८ शकाब्द (वि.सं.१३७३) है। मूल कृति के मंगलाचरण श्लोक के उत्तर पद-चक्रेश्वरारब्धनभश्चराशुसिद्धिं महादेव ऋषींश्च नत्वा। के अनुसार चक्रेश्वर नामक ज्योतिषी के आरम्भ किये हुए अपूर्ण ग्रन्थ को महादेव नामक ज्योतिषी ने पूर्ण किया। महादेव पद्मनाभ ब्राह्मण के पुत्र थे। गोदावरी नदी के निकट रासिण गाँव के निवासी थे। मूलतः इनके पूर्वज गुजरात के सूरत शहर के आसपास के निवासी थे।
टीकाकार वाचक धनराज– अंचलगच्छीय आचार्य श्रीभाववर्द्धनसूरि के प्रशिष्य एवं वाचक भुवनराज (भोजराज) के शिष्य थे। अंचलगच्छाधिपति आचार्य श्री कल्याणसागरसूरि के परम्परावर्ती थे। महाराजा श्री गजसिंह के राज्यकाल में इन्होंने इस कृति की रचना की। प्रस्तुत कृति महादेवीसूत्र-दीपिका टीका की रचना संवत् १६९२ (नेत्रनवांगभू) ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को पद्मावतीपत्तन में पूर्ण हुई। अपनी टीका में वाचकों के लिये सरल व सुबोध शैली में उदाहरणरूप सारणी व कोष्ठक भी यथास्थल दिये हैं। टीका का ग्रन्थाग्र १५००(बाणेलाशतसंख्यका) श्लोक प्रमाण है। लघुकृतिरूप ज्योतिष विषयक छूटक अन्य कृतियाँ भी मिलती है। इसके अतिरिक्त इनकी कोई बड़ी कृति देखने या पढने में नहीं आई है। ये ज्योतिष विषय के एक मर्मज्ञ व सिद्धहस्त विद्वान थे। इनकी दीपिका टीका दीपक के समान ही सिद्ध हो रही है।
महादेवीसूत्र पर एकमात्र कृति दीपिका टीका कोबा ज्ञानमन्दिर में उपलब्ध है। अन्य कहीं किसी भंडार में हो इसकी हमें जानकारी नहीं है। अब तक की जानकारी के अनुसार यह अप्रकाशित है। कदाचित् कहीं किसी और स्थान से प्रकाशित हो इसकी हमें कोई जानकारी नहीं है। विशेष जानकारी हेतु संशोधन अपेक्षित है।
प्रारम्भ में टीकाकार ने नियमानुसार मङ्गल, अभिधेय, प्रयोजन अन्तर्गत प्रथम तीर्थकर आदिनाथ परमात्मा, अपने गुरु, माता सरस्वती, सूर्यादि ग्रह, मङ्गलकर्ता श्रीगणेश एवं माता भुवनेश्वरी को प्रणाम किया है। इसके बाद महादेवोक्त सारिणी की शास्त्रानुसार टीका निर्माण करने की घोषणा करते है। किस हेतु निर्माण करते हैं तो दैवज्ञानां सुखाप्तये अर्थात् ज्योतिषी जनों की सुख प्राप्ति के लिये इसकी रचना करता हूं। अन्त में रचना प्रशस्ति अन्तर्गत अपना गच्छ, गुरु, रचना संवत्, रचना स्थल, राजा का शासन काल, कृति ग्रन्थाग्र आदि की स्पष्टता का उल्लेख इन्होंने किया है। इससे कृति व कर्ता दोनों से हम परिचित हो पाते हैं।
महादेवीसूत्र की दीपिका टीका का प्रारम्भिक श्लोकद्वय–
श्रीनाभेयं जिनं नत्वा, श्रीगुरोः पादपुष्करम्।
वाग्देवीं तपनादींश्च हेरम्बं भुवनेश्वरीम्॥१॥
महादेवोक्त सारिण्याः, ग्रहाणां विदधाम्यहम्।
वृत्तिं शास्त्रानुसारेण, दैवज्ञानां सुखाप्तये॥२॥
महादेवीसूत्र की दीपिका टीका का अन्तिम श्लोक–
बाणेलाशतसंख्यका पुनरनुष्टुप्छन्दसा तन्मितेयविन्मेरुमहीध्राः स्थिरतराः खे पुष्पदंतौ स्थितौ।
तावत्तिष्ठतु दीपिकेति सततं नाम्नी हि वृत्तिस्त्वियं तद्ज्ञानां च सुखाप्ततये सुमतिना धार्या गुरोर्भावतः॥
॥ इत्याञ्चलिक वाचनाचार्य वा० श्री ५ श्रीभुवनराजगणीन्द्राणां शिष्य पण्डित श्रीधनराजगणि कृता महादेवीदीपिकावृत्तिः सम्पूर्णाः॥
वाचक व संशोधकों से नम्र निवेदन है कि इस कृति को संपादन-संशोधन के द्वारा ज्ञानयज्ञ में सहभागी होकर व श्रुतसेवा में हाथ बँटाकर जनहित हेतु उपकारी बनें। आपकी जिज्ञासा की पिपासा को तृप्त करना ही हमारा लक्ष्य व ध्येय है। अपना अमूल्य अभिप्राय हमें अवश्य दें। अलमिति विस्तरेण, सुज्ञेषु किं बहुना॥
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