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अप्रकाशित कृति परिचय लेखमाला-लेख-१९ विदग्धमुखमण्डन की टीकाएँ : कृति परिचय संजय कुमार झा

एक दृष्टि में मूल कृति परिचय : विदग्धमुखमण्डन नामक यह कृति बौद्ध विद्वान धर्मदास के द्वारा  वि.सं. १३१० के आसपास रची गई है। यह अलङ्कार विषयक पद्यात्मक कृति है। इसमें प्रहेलिका और चित्रकाव्य से सम्बन्धित भी जानकारियाँ दी गई हैं। संस्कृत भाषामय कुल ४ परिच्छेदों  व २७६ श्लोकों में निबद्ध है। रचनाशैली रोचक एवं बोधगम्य है। इसकी उपयोगिता और सरलता को लक्ष्य में रखते हुए अनेक जैन-जैनेतर विद्वानों ने अवचूरि, टिप्पण, टीका व व्याख्याएँ की हैं। इनमें कई टीकाएँ हैं, कुछेक आधुनिक टीकाएँ भी हैं जो प्रकाशित हैं, शेष प्राचीन टीकाएँ संभवतः अद्यावधि अप्रकाशित हैं। इस दिशा में विद्वानों को ध्यानाकृष्ट करने हेतु इस लेख के माध्यम से स्मरण दिलाना चाहता हूँ।

आचार्य श्री जिनप्रभसूरि रचित अवचूरि-आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में प्रत क्रमांक-९३१९४ पर तथा कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची के भाग-२२ में यह सूचीबद्ध है। प्रत की स्थिति अच्छी और सम्पूर्ण रूप से है। प्रति पंचपाठयुक्त है। इसमें कुल पत्र-१८ हैं। प्रतिलेखन पुष्पिका इस प्रकार है-संवत् १८८८ वर्षे मृगिसिरमासे कृष्णपक्षे त्रयोदशी १३ तिथौ भृगुवासरे। लिखतं वा० हितप्रमदोगणि शिष्य पं. सत्यराज पठनहेतवे लपीचक्रे। श्रीस्वर्णगिरौ चतुर्मासकस्थितौ। लिखावट सुवाच्य और सुन्दर है। अवचूरि के प्रारम्भ व अन्त में मङ्गलाचरण व प्रशस्ति का उल्लेख नहीं है। जिससे रचनावर्ष, रचना स्थल, कर्ता की गुरुपरम्परा आदि की सूचनाएँ अनुपलब्ध है। परन्तु, परिच्छेदसूचक पुष्पिकाओं में जिनप्रभसूरि रचित अवचूरि का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। परिच्छेद १, ३ व ४ में जिनप्रभसूरिकृतावचूरि का तथा परिच्छेद-२ में जिनभद्रसूरिकृता का उल्लेख है, किन्तु यहाँ जिनप्रभसूरि की जगह जिनभद्रसूरि लेखनत्रुटि हो सकती है। कारण कि सभी परिच्छेदों में जिनप्रभसूरि का ही नाम है। आदिवाक्य-सिद्धशब्दो मङ्गलार्थः सि०निष्पन्नौषधानि संसर कष्ट प्रभूतरोगानां परमानि प्रकृष्टानि। अन्तवाक्य- श्रोतृत्वादयो गुणाः प्रतिष्ठिताः।

मुनि श्री विनयसागरजी रचित शब्दार्थमन्दाकिनीटीका-आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में प्रत क्रमांक- १६१७८७ पर तथा कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची के भाग-३७ में यह सूचीबद्ध है। मात्र एक ही प्रति जीर्ण व अपूर्ण स्थिति में है। लिखावट से प्रत १९वीं की लिखी प्रतीत होती है। अन्तिम चतुर्थ परिच्छेद का अन्त भाग है। टीकाप्रशस्ति का अन्त भाग भी अपूर्ण है। कुल पत्र मात्र १ ही है। टीकाकार खरतरगच्छीय जिनहर्षसूरिसंतानीय सुमतिकलश के शिष्य श्रीविनयसागरजी ने संवत् १६९९ में इस कृति की रचना की है।

मुनि विनयरत्नजी रचित टीका-आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में इस कृति की दो प्रतियाँ उपलब्ध हैं।  दोनो ही प्रतियाँ अपूर्ण हैं। प्रत क्रमांक-६८८४, कुल पत्र-६८ तथा कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची के भाग-२ तथा प्रत क्रमांक-१५०९०६, पत्रांक-३६वां, सूचीपत्र ३४ में अंकित है। टीकाकार विनयरत्नजी, विनयसुंदरजी के शिष्य है। लिखावट से प्रत संवत् १८ वीं से १९ वीं के बीच की लिखी हुई प्रतीत होती है। आद्यन्त भाग न होने एवं प्रत अपूर्णता के कारण प्रतिलेखन पुष्पिका व रचना प्रशस्ति सम्बन्धी सूचनाएँ अप्राप्य हैं। मात्र अध्याय पुष्पिका में उल्लिखित कर्ता के नाम से टीकाकार का नाम स्पष्ट हो पाया है।

दुर्गूक रचित टीका- आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में प्रत क्रमांक-३६७२ पर एकमात्र यह प्रति है। यह सूचीपत्र क्रमांक-१ में सूचीबद्ध है। प्रतिलेखन पुष्पिका में-संवत् १६५७ वर्षे प्रथम नभसि मासि कृष्णपक्ष १२ तिथौ शुक्रवासरे पूर्णितेयमिति॥ के अनुसार प्रति का लेखन संवत् १६५७ है। प्रत सम्पूर्ण है, सुवाच्य है, मध्यफुल्लिकायुक्त है। प्रत संशोधित व शुद्ध पाठयुक्त है। कुल पत्रांक-५० है। लेखक ने अपना नाम या स्थलादि का कोई उल्लेख नहीं किया है। अन्त में अध्याय पुष्पिका में- प्रति दुर्गूककृतायां विदग्धमुखमंडनस्य टीकायांवये जिनोपदिष्ट तुर्य क्लिष्टापदच्छेदवान् परिच्छेद समाप्तः॥ इसी तरह प्रथम से तृतीय परिच्छेदों में भी चतुर्थ परिच्छेद की भाँति टीकाकार दुर्गूक का नाम मिलता है। इन परिच्छेद पुष्पिकाओं के उल्लेख से टीकाकार निस्संदेह दुर्गूक सिद्ध होता है। रचना प्रशस्ति न होने से रचना संवत्, रचना स्थलादि का उल्लेख नहीं है। प्रारम्भिक ५ मङ्गलाचरण श्लोकों में टीकाकार मंगल श्लोक,  अपने गुरु का नाम, पिता का नाम व अन्त में अपना नाम स्पष्ट करते हैं। श्लोकांक-४ से ५ में इस प्रकार कथन मिलता है-

योऽर्थः कथितो प्रथितो गुरुभिः श्रीभट्टदेवन्नैः(त्रैः,ज्ञैः?) उत्कण्ठते स्वशक्त्या। विरचयितुं मे मनस्तमेवार्थम्॥४॥ यद्यत्पदं स्थगयतिस्म सधर्मदासस्तत्तन्न कोऽपि कलयेदिति दुर्गदासः। श्रीवासुदेवतनयो विनयी तनोति मुग्धां विदग्धमुखमण्डननव्यटीकाम्॥५॥

इससे सिद्ध होता है कि इनके गुरु श्रीभट्टदेव, इनके पिता श्रीवासुदेव तथा इनका नाम दुर्गदास है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है परिच्छेदों की पुष्पिकाओं में उल्लिखित दुर्गूक का ही वास्तविक नाम दुर्गदास है। दुर्गदास का अन्य प्रचलित नाम दुर्गूक है यह स्पष्ट हो जाता है। टीका के अन्तर्गत सचित्र उदाहरणों के द्वारा चित्रकाव्यों को सुन्दर ढंग से बताने का टीकाकार द्वारा एक सफल प्रयास हुआ है। टीकाकार वैदिक विद्वान है। इनके सत्ता समय का स्पष्ट उल्लेख न होने से विद्वद्वर्ग द्वारा अवश्य ही संशोधनीय है। हाँ, लेखन काल संवत् १६५७ के पूर्व का काल तो अवश्य ही होना चाहिये।

टीका का मङ्गालाचरण श्लोक-

विघ्नौघद्विपमर्मभेदनलसत्कंठीरवं प्रोल्लसद्विघ्नेशांह्रिसरोजयुग्ममरुणं सौभाग्यसौरभ्यदम् ।
तल्लोभभ्रमणोत्सुकभ्रमरसद्वृंदोपगीतं मुहुर्वन्दे युक्तिपरागराजितमति प्राचुर्यकार्यान्वम् ॥१॥

टीका का अन्तिम पद-अपि तु रजनीयामिनीतमीत्यमरः॥ ७२॥ इति च्युतदत्ताक्षरजातिः॥

नरहरि भट्ट रचित श्रवणभूषणटीका-आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में १८ पत्रात्मक संवत् १८वीं की प्रत क्रमांक-१७४५ पर तथा ११ पत्रात्मक संवत् १६वीं की हेमचन्द्राचार्य ज्ञानभण्डार-पाटण के कागजवाले भंडार में प्रत क्रमांक-६७९२ पर इस कृति की ये दो प्रतियाँ उपलब्ध हैं। दोनों में से किसी भी प्रत में प्रतिलेखन पुष्पिका नहीं लिखी है। इसलिये प्रतिलेखक का नाम, लेखन स्थल या लेखन वर्षादि सम्बन्धी सूचनाएँ नहीं मिल पाई हैं। दोनों प्रतियों के पाठ सुवाच्य, सुन्दर, शुद्ध और संशोधित है। टीकाकार ने अपनी इस टीका का नाम श्रवणभूषणटीका लिखा है। विभिन्न सूचीपत्रों में इस टीका का उल्लेख मिलता है। टीकाकार ने प्रारम्भिक ३ श्लोकों में मंगलाचरण किया है। इसमें मंगल, अभिधेय व प्रयोजन को स्पष्ट किया गया है। ये हरिरल्लाल भट्ट के पुत्र हैं। टीकाकार ने प्रशस्ति नहीं लिखी है। किस कालखंड में इनका सत्तासमय रहा, यह संशोधनपटु इस कृति के संशोधन व प्रकाशन में स्पष्ट करने की कृपा करेंगे। परन्तु प्राप्त इन दोनों प्रतों के लिखावट से इतना स्पष्ट होता है कि ये वि.सं. १६वीं या १७वीं के समय में अथवा इनसे पूर्व में अर्थात् मध्यकालवर्ती विद्वान रहे होंगे। टीकाकार साहित्य अलङ्कार ग्रन्थ के अपने समय के एक सफल विद्वान रहे होंगे। एतदर्थ प्रारम्भिक मंगलाचरण के तीनों श्लोक ज्ञातव्य हैं-

हे हेरम्ब किमम्ब किं तव करे तातस्य चान्द्रीकला, कृत्यं किं शरजन्मनोक्तमनपाऽदन्तान्तरं स्यादिति ।
तातः कुप्यति गृह्यतामिति तदाहर्त्तुतदन्यां कलामाकाशे जयति प्रसारितकरस्तंवेरमग्रामणीः॥१॥

यः साहित्यसुधेन्दुर्नरहरिरल्लालनन्दनः कुरुते स श्रवणभूषणाख्यां विदग्धमुखमण्डनव्याख्याम् ॥२॥

विकाराः सन्ति बहवः विदग्धमुखमण्डने । तथापि मत्कृतं भावि मुख्यं श्रवणभूषणम् ॥३॥

अन्तवाक्य-अम्बरं आकाशं वस्तुं च च्युतदत्ताक्षरम्॥

इन टीकाओं के प्रकाशन से विद्वानों को साहित्य के क्षेत्र में एक विशेष जानकारी मिलेगी तथा साहित्यरसिक इससे लाभान्वित हो पाएंगे। अस्तु। अलमितिविस्तरेण सुज्ञेषु किं बहुना।

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